Posts

उस्ताद और कॉलेज

Image
 उस्ताद - शागिर्द का रिश्ता हमेशा से ही अहम रहा है और अगर बात की जाए कॉलेज की जहां तक पहुंचते पहुंचते उस्ताद और दोस्त में बहुत कम ही फासला रह जाता है, उन दिनों में अक्सर ऐसा होता है के किसी सर / मैम से बहुत गहरा लगाव हो जाता है और हर बात पे हम उनसे मदद और राए लेने पहुंच जाते हैं, बिल्कुल किसी ऐसे दोस्त की तरह जिसकी उम्र के साथ उसका तजुर्बा हमसे ज़्यादा हो । हमारे लिए वो थीं "हाज़रा मैम" । मुझे याद है जब हम फर्स्ट ईयर में कॉलेज में दाखिल हुए थे । पूरे जोश के साथ, दिल में हज़ारों अरमान लिए । उस वक़्त बस एक ही तो अरमान दिल में बसा होता है के अभी बस कॉलेज में आ गए अब पढ़ाई के साथ मज़े करेंगे ।    उस वक़्त हमें पता चला के यहां एक TG यानी टीचर गार्जियन होगा/होगी जो के क्लास में क्या चल रहा है उसकी खबर रखने का काम करेगा/करेगी । हमारी टीजी बनीं हाज़रा मैम और शुरू हुई कॉलेज लाइफ । कॉलेज लाइफ का तो क्या ही कहना फिर किसी दिन अभी तो बस इतना कह के बस करेंगे के बस भी नहीं किया जा सकता । बहरहाल हम लोग आगे बढ़े और एक सब्जेक्ट आया EEES ( Energy Environment Ecology and Society) जिसको पढ़ाने आई

ऐलानिया बनाम खुफिया इमर्जेंसी

Image
 25 जून की शाम, लॉकडाउन की वजह से दिन भर कुछ छोटे मोटे काम जैसे ऑनलाइन क्लासेज कराने के सिवा आराम की थकन से चूर होने के बाद शाम को वॉट्सएप पे सब की  स्टोरी देखते देखते मेरी नज़र एक जूनियर और दोस्त आशीष की स्टोरी पे जा के टिक गई। उसपे लिखा था "ऐलानिया और ख़ुफ़िया इमर्जेंसी"।  इसको पढ़ते हुए ज़ेहन में उस साल के इसी दिन की तस्वीरें उभरने लगीं जिस साल मैं पैदा भी नहीं हुआ था। 1975 की सारी बातें अब तक न्यूज चैनल पे देखी, अपने बड़ों से सुनी और किताबों में पढ़ी थी। आज तक यही सोचता आया के क्या ही खराब हालात होंगे के देश के राष्ट्रति को इमर्जेंसी का ऐलान करना पड़ा या यूं कहें तो शायद बेहतर होगा के उनसे ज़बरदस्ती इमर्जेंसी का ऐलान कराया गया । मन ही मन ये सोच लिया के इसके बारे में तहकिकात ज़रूर करेंगे के , क्यों ऐसे हालात पेश आते हैं या ये हालात जान बूझ कर पेश किए जाते हैं ताकि मासूम जनता को सिर्फ वोट बैंक बना कर रखा जा सके ? खैर ये सारी चर्चा कभी और सही लेकिन  छानबीन करते करते ऐसे डाटा सामने आए जिस से मन पूरी तरह तसल्लियाब हो गया के उस वक्त यानी 25 जून 1975 और इस वक्त यानी 25 जून 2020

हमसफ़र और चाँद

Image
 रात के तकरीबन 2:00 बज रहे थे । चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था। पूरा शहर रात की आगोश में समाया हुआ ख्वाबों की हसीन दुनिया में गोते लगा रहा था।  गलियों में कुछ  आवारा कुत्तों के  भौंकने की आवाज़ें आ रही थीं ।  रिया अपने छत के किनारे वाले हिस्से पर बैठकर टिमटिमाते हुए तारे और खिलते हुए चाँद को देख रही थी।  उसे यूँ अकेला बैठ कर चांद और तारे देखना बहुत पसंद था वो अक्सर घंटों ऐसे ही अकेले चाँद को देखा करती थी। आज आसमान में कुछ  बादल भी छाये हुए थे। वो एकटक चाँद को निहारे जा रही थी। ऐसा लग रहा था के चांद तेजी से भागा जा रहा है । हालांकि वो साइंस की पढी-लिखि स्टूडेंट थी । उसे चाँद तारों की गर्दिश का इल्म था । उसे पता था कि यह चांद इतनी तेज़ भाग नहीं रहा बल्कि यह बादल इसके दूसरी तरफ तेजी से भागे जा रहे हैं जिसकी वजह से चांद भागता हुआ दिख रहा है, लेकिन वो अपने ख्यालों में ऐसे गुम थी के उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था । वो चाँद को देखते देखते खुद ही खुद में बड़बड़ाने लगी "मैं तुमसे चाँद तारों की फरमाइश नहीं करने वाली, मुझे चाँद तारे तोड़ कर लाने के वादे मत करना बस मेरे साथ यूँ ही घंटों बैठ कर चाँद

मैं और मेरा नाम

Image
अंग्रेजी के एक महान लेखक शेक्सपियर ने कभी कहा था कि, "नाम में क्या रखा है?" मैं भी यही समझता था कि, नाम में क्या रखा है? आपकी पहचान आपके काम से होती है,और नाम के तरफ कभी ध्यान दिया ही नहीं। हालांकि मुझे अपने नाम की वजह से कई सारे ह़ालात पेश आए।  जो लोग इस नाम को पसंद करते थे, इस नाम के पीछे छुपी हुई असलियत को जानते थे, उन्होंने तो शाबाशी दी, और उम्मीद भरी निगाह से देखा, जैसे कि कोई ऐसा काम अधूरा हो, जिस को पूरा करने की तरफ इशारा कर रहे हों। कोई राज़ हो जिसे दुनिया के सामने उजागर करने के लिए उकसा रहे हों, और जो इस नाम को पसंद नहीं करते, वो मेरे नाम को सुनते ही बस यह कह देते अरे वो तो बड़ा ज़ालिम था, और उसने अपने खानदान वालों के साथ ये-ये ज़ुल्म किया था, बग़ैर तह़क़िक किए हुए के वो ज़ुल्म था या इंसाफ़? और फिर बहुत सारे क़िस्से इस अंदाज़ में सुनाने लगते मानो कि वो सारे काम मैंने खुद ही किया हो।  कभी नाम की स्पेलिंग की गड़बड़ी तो कभी बोलने में तलफ़्फ़ुज़ यानि उच्चारण में गड़बड़ी सुनते सुनते तो अब आदत सी हो गई है। बहरहाल ये तो एक छोटा मसला था लेकिन क्या हो जब आपके नाम की वजह से आप

मेरे बचपन का दोस्त।

Image
अज़हर उर्फ डब्ल्यू  मेरा कजन भाई कम दोस्त ज्यादा। बचपन से हम लोग साथ रहे खेले-कूदे, पढ़ा-लिखा और जिंदगी का हर लम्हा आपस में साझा किया। लुका छुपी हो  या  गिल्ली डंडा  या फिर क्रिकेट  हमने साथ में  सब के मज़े लिए, एक दूसरे की जिंदगी को समझने की कोशिश की  और साथ ही  जवानी की दहलीज पर कदम भी रखा।  उन दिनों  की यादें सबकी अतरंगी होती हैं जब बचपने को छोड़कर कोई लड़का / लड़की जवानी के साँचे में ढल रहा होता/होती है। है न?       इसकी भी कुछ ऐसी ही दास्तां रही कुछ अजीब किस्से, कुछ अतरंगी कहानियां, कुछ शरारती हरकतें, जैसे क्लास की खूबसूरत लड़की को खत लिखना और उसे बिना कहे उसके बैग में डाल देना। घरवालों से छुपकर मोबाइल रखना और नई बनी हुई गर्लफ्रेंड से बात करना। यह सब इसके साथ हो रहा था और इसकी खबर किसी को ना हो यह मेरी जिम्मेदारी थी हद तो तब हो जाती थी जब इसकी लड़ाई गर्लफ्रेंड से हो जाती थी, उस वक्त  इसका फोन  उठाना  और  इसकी गर्लफ्रेंड से बात करना  यह सब जिम्मेदारी भी मेरी ही होती थी  और मुसीबत ये थी के उस वक्त मुझे पता नहीं था के बात क्या करनी है?  कई बार  हम  किसी मुद्दे पर  एक हो जाते थे  और क

बारिश, बचपन और ज़िम्मेदारी।

Image
बचपन का हसीन ज़माना जब हमारे घर की दिवार कच्ची, मिट्टी की थी , फर्श भी मिट्टी का जिसमें कई बार चूहे अपनी बिल बना लिया करते थे और उसे मिट्टी का लेप लगा कर उसे भर दिया जाता था।  पिलर के नाम पर एक मोटी मजबूत ग़ालिबन नीम के पेड़ की टहनी दीवारों के सहारे छत को रोके हुए थी। छत मिटटी से बने और चिमनी की भट्ठी में पके खपरे से बना था जो के बांस के बल्लियों के ऊपर तह ब तह रखे हुए थे जिनसे बारीश के दिनों में पानि रिस कर अंदर टीप-टीप टपकता था , जिस की वजह से कई सुबह और शाम एक जगह बैठ कर गुज़ारनी पड़ती थी क्योंकि घर में कई जगह पानी लगने की वजह से कीचड हो जाया करता । दिन तो फिर भी गुज़र जाते मगर रात गुज़ारना मुहाल हो जाता । घर के एक कोने पर जहाँ कम पानी टपकता था एक पलंग लगा था जो के 1993-94 का बना था और अब अपनी पूरी सलाहियत खो चुका था । हम अक्सर उस पलंग पे बारिश की रातें बैठे बैठे सो के गुज़ार दिया करते थे । इन सबके बावजूद बचपन की बारीश सबसे प्यारी थी क्यूंकि उस वक़्त उस बारीश में सिर्फ भिंगना नहीं था बल्की अपने लडकपन की शहादत देते हुए अपने यारों के साथ बारीश के मज़े लेने थे । बारिश में कबड्डी खेलना था । काग़ज़