बारिश, बचपन और ज़िम्मेदारी।

  • बचपन का हसीन ज़माना जब हमारे घर की दिवार कच्ची, मिट्टी की थी , फर्श भी मिट्टी का जिसमें कई बार चूहे अपनी बिल बना लिया करते थे और उसे मिट्टी का लेप लगा कर उसे भर दिया जाता था।  पिलर के नाम पर एक मोटी मजबूत ग़ालिबन नीम के पेड़ की टहनी दीवारों के सहारे छत को रोके हुए थी। छत मिटटी से बने और चिमनी की भट्ठी में पके खपरे से बना था जो के बांस के बल्लियों के ऊपर तह ब तह रखे हुए थे जिनसे बारीश के दिनों में पानि रिस कर अंदर टीप-टीप टपकता था , जिस की वजह से कई सुबह और शाम एक जगह बैठ कर गुज़ारनी पड़ती थी क्योंकि घर में कई जगह पानी लगने की वजह से कीचड हो जाया करता । दिन तो फिर भी गुज़र जाते मगर रात गुज़ारना मुहाल हो जाता । घर के एक कोने पर जहाँ कम पानी टपकता था एक पलंग लगा था जो के 1993-94 का बना था और अब अपनी पूरी सलाहियत खो चुका था । हम अक्सर उस पलंग पे बारिश की रातें बैठे बैठे सो के गुज़ार दिया करते थे ।

  • इन सबके बावजूद बचपन की बारीश सबसे प्यारी थी क्यूंकि उस वक़्त उस बारीश में सिर्फ भिंगना नहीं था बल्की अपने लडकपन की शहादत देते हुए अपने यारों के साथ बारीश के मज़े लेने थे । बारिश में कबड्डी खेलना था । काग़ज़ की कश्ती बना कर पानी में बहाना था और उन बहती कश्तियों की बाज़ी लगानी थी। हम में से कई लोग आर्मी की ट्रेनिंग की नक़ल करते के कैसे आर्मी के जवान कीचड में चलते हैं । चूँकि फुटबॉल किसी के पास नहीं होते थे सो जिसे फुटबॉल खेलना हो वो मिलकर अपने कपड़ो का फोटबॉल बनाते थे । कुछ अपनई पुरानी साइकिल के पहिए उठा लाते और रेस लगाते । हारते - जीतते , गिरते-उठते ,थकते - भागते , खुश होते और फ़िर इन सब का चर्चा कई दिनों तक उसी अंदाज से चलता रहता।

  • वक़्त बीतता गया हमने जवानी की दहलीज पे क़दम रखा और ज़िम्मेदारियों ने लड़कपन की जगह ले ली । अब न तो वक़्त रहा न चाहत रही । अब जब बारिश होती है तो ऑफीस में देर होने पर बॉस के डांट खाने का दर होता है। ऑफिस जाने वाली बस के छूटने का डर रहता है । घर देर से पहुँचूँगा तो सारी तरतीब ख़राब हो जाएगी और फर अगले दिन ऑफिस भी तो पहुंचना है, ये डर सताता है इसलिए अब ये बारिश इस उम्र में अच्छी नहीं लगती क्यूंकि अब मैं ज़िम्मेदारियों को ओढ़ के चलने वाला हो गया था ।

  • वक़्त की घड़ी रूकती नहीं और वक़्त के साथ सब की हैसियत बदल ही जाती है । कंपनी में प्रमोशन मिलने के बाद , ऊँचे ओहदे पर पहुँचने के बाद अब कोई काम ही नहीं सिवाए ज़रूरी काग़ज़ात पे दस्तखत करने के । अपनी गाड़ी है AC लगी हुई अपना फ्लैट है उसमें भी AC है । और कंपनी के तो ऊँचे ओहदे पर होने का मतलब ही ह AC ऑफिस । अब न तो बस छूटने का डर है न ऑफिस में देर पहुंचने पर बॉस से डांट खाने का डर और न ही घर देर से पहुँचने पर अगले दिन की तरतीब बिगड़ने का खौफ सताता है।

  • तो अब ये बारिश फिर से अच्छी लगने लगी है ।

  •  वो इसलिये के बगल वाले फ्लैट में जो पडोसी रहते हैं न वो जब बारीश में परेशान हाल होते हैं न तो उस वक़्त अपनी बालकनी में बैठ कर गर्म गर्म पकौड़े खाते हुए उन्हें दिखाना होता है के कामयाबी और शोहरत अब इसका नाम है ।

  • हालाँकि बचपन की और अब की ख्वाहिश एक ही थी बरिश लेकिन मक़सद एलाहिदा। 
  • एक का मक़सद था दिलो का जोड़ना ,और दुसरे का मक़सद है दिलो को तोड़ना।
  • ✍इ. औरंगज़ेब आज़म

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