ऐलानिया बनाम खुफिया इमर्जेंसी

 25 जून की शाम, लॉकडाउन की वजह से दिन भर कुछ छोटे मोटे काम जैसे ऑनलाइन क्लासेज कराने के सिवा आराम की थकन से चूर होने के बाद शाम को वॉट्सएप पे सब की  स्टोरी देखते देखते मेरी नज़र एक जूनियर और दोस्त आशीष की स्टोरी पे जा के टिक गई। उसपे लिखा था "ऐलानिया और ख़ुफ़िया इमर्जेंसी"।  इसको पढ़ते हुए ज़ेहन में उस साल के इसी दिन की तस्वीरें उभरने लगीं जिस साल मैं पैदा भी नहीं हुआ था। 1975 की सारी


बातें अब तक न्यूज चैनल पे देखी, अपने बड़ों से सुनी और किताबों में पढ़ी थी। आज तक यही सोचता आया के क्या ही खराब हालात होंगे के देश के राष्ट्रति को इमर्जेंसी का ऐलान करना पड़ा या यूं कहें तो शायद बेहतर होगा के उनसे ज़बरदस्ती इमर्जेंसी का ऐलान कराया गया ।


मन ही मन ये सोच लिया के इसके बारे में तहकिकात ज़रूर करेंगे के , क्यों ऐसे हालात पेश आते हैं या ये हालात जान बूझ कर पेश किए जाते हैं ताकि मासूम जनता को सिर्फ वोट बैंक बना कर रखा जा सके ? खैर ये सारी चर्चा कभी और सही लेकिन  छानबीन करते करते ऐसे डाटा सामने आए जिस से मन पूरी तरह तसल्लियाब हो गया के उस वक्त यानी 25 जून 1975 और इस वक्त यानी 25 जून 2020 में बस इतना सा फ़र्क है के वो ऐलानिया इमर्जेंसी थी और ये ख़ुफ़िया इमर्जेंसी है ।


उस वक़्त भी हुक्मरान अपनी चलाने की कोशिश में थे और अपनी कुर्सी को बचाने के लिए जिस हद तक गिरना पड़े गिर गए। इस वक़्त भी हुक्मरान अपनी अना बचाने और नाकामी छुपाने की खातिर जिस हद तक गिरना पड़ जाए गिरने को तैयार खड़े हैं और शायद हद से ज़्यादा गिर भी गए हैं ।


उस दौर में भी हुक्मरानों ने सरकारी मशीनों का ग़लत तरीके से इस्तेमाल किया ताकि सत्ता की बाग़डोर उनके हाथों में रहे और अभी भी सत्ताधारी लोग सरकारी मशीन का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए कर रहे हैं , फिर चाहे वो evm हो या इलेक्शन कमिशन । ईवीएम ले कर फिरते हुए लोग दिखाई भी दे दें तो भी इलेक्शन कमिशन के कान पर जूं भी न रेंगे और फिर दावा करे "free and fare election" की ।


उस दौर में भी देश की भोली भाली जनता को पाकिस्तान से खतरा और तेल संकट जैसी बातों से डरा कर बेवकूफ बना के चुप करा दिया गया था और बेचारी भोली जनता इसे मान भी गई थी और इस वक़्त भी तो "पाकिस्तान का टिड्डी हमला" और "पाकिस्तान कर रहा साजिश" जैसे अहमकाना खबरें दिखा कर जनता को बेवकूफ बनाया जा रहा है फिर चाहे भले ही चाइना 10 किलो मीटर अंदर ही क्यूं ना घुस जाए लेकिन इसे जनता तक पहुंचने नहीं दिया जाता ठीक उसी तरह जिस तरह ज़बरदस्ती कराए गए नसबंदी की खबर को उस वक़्त खबरों तक नहीं पहुंचने दिया जाता था ।


उस वक़्त भी मुखालफत करने वाले सारेे लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया था फिर चाहे वो विरोधी पार्टी के अटल बिहारी बाजपेई हों, लालू यादव हों या अपनी ही पार्टी के चंद्रशेखर या रामधन । ना रहेगा बांस ना बजेगी बांसुरी। और इस वक्त भी तो सारे वो लोग जो मौजूदा सरकार की नुमाइंदगी में चलने से इनकार करते हैं उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है,फिर वो सी ए ए , एनआरसी , एनपीआर के मुखालिफ हों या सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ खड़े होने वाले। उस वक़्त इमर्जेंसी का फायदा उठा के गिरफ्तारी हुई थी और अब लाॅकडाउन का फायदा उठाया जा रहा है । फिर भले ही कानून और संविधान को ताक़ पर रखना पड़ जाए , सरकारें इससे पीछे नहीं हटतीं ।  इस बीच ये कैसे भुला जा सकता है के लाल कृष्ण आडवाणी ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व में चल रही सरकार को तानाशाही और हिटलर शाही का नाम दिया था लेकिन खुद अभी एक वैसी ही सरकार के साथ खड़े हैं जो खुद तानाशाही और हिटलर शाही में मुब्तिला है ।


उस वक़्त भी सरकार , जनता की  ज़रूरियाते ज़िन्दगी से बिल्कुल बे खबर सिर्फ अपनी मनमानी थोपने की कोशिश कर रही थी । फिर चाहे वो इंदिरा गांधी का  रेडियो पे आ कर खबर देना ही क्यों ना हो,  जबकि ये बखूबी सबको मालूम है के उस दौर में रेडियो का होना अमीरी की निशानी में से एक था और देश की बेश्तर अवाम के पास ये सुविधा मुहैया नहीं थी । जिस से उन्हें बिल्कुल खबर नहीं थी के क्या हो रहा है? इस वक़्त भी तो सत्ता को ट्विटर से चलाने की कोशिश की जा रही है । जब भी कुछ मैसेज देना होता है , प्रधान मंत्री एक ट्वीट करते हैं या टीवी पर आ कर ऐलान करते हैं ये जानते हुए के कितने लोगो के पास टीवी है? या कितने लोग ट्विटर पे एक्टिव हैं? और फिर में कि बात को कैसे भुला जा सकता है?


उस वक़्त भी सरकार ने अपनी नाकामी को छुपाने के लिए आंतरिक अस्थिरता ( internal unstablishment ) का हवाला दे कर खुद के कारनामे पे पर्दा डाल दिया था । इस वक़्त भी सरकार ने अपनी नाकामी जैसे जीडीपी का गिरना , नौकरियों का खत्म होना , सरकारी संस्थाओं का निजीकरण  को छुपाने के लिए सारा इल्जाम इस महामारी पे डाल रही है और जनता को हज़ारों की तादाद में हजारों किलो मीटर पैदल वापस हो रहे मजदूरों से ध्यान हटाने के लिए उनसे उनसे थाली पीटना , घंटी बजाना, दिए जलाना , टॉर्च जलाना जैसे काम करा रही है । अफसोस तो ये के उस वक़्त भी लोग बेवकूफ बन रहे थे , इस वक़्त भी लोग बेवकूफ बन रहे हैं।


लिखने वालों की जवाबदेही और ज़िम्मेदरियां हर वक़्त में बहुत बड़ी रही है। आने वाली पीढ़ियों तक बात पहुंचाना इनके जिम्मे होता है फिर चाहे वो अंदाज़ और हालात कुछ भी हो।  उस वक़्त भी राष्ट्र कवि माने जाने वाले रामधारी सिंह दिनकर ने कहा था " सिंहासन खाली करो के जनता आती है" । इस वक़्त भी लिखने वाले अपनी ज़िम्मेदारी निभाने में लगे हैं बस फर्क इतना है इन्हें "ईनाम वापसी गैंग" का नाम दे कर मज़ाक उड़ा लिया जाता है। चाहे अपने आप को बड़ा मानने वाले लेखक हो या फिर छोटा, सबने अपने हिसाब से विरोध जताया फिर चाहे वो ये नारा दे के "हम कागज नहीं दिखाएंगे " या फिर ये के "सब याद रखा जाएगा "। 


सरकार और जनता के बीच ताल्लुक बनाए रखना और जनता की आवाज़ को सरकार तक पहुंचाने के लिए मीडिया को ज़िम्मेदार माना जाता है और इसलिए इसे लोकतंत्र का चौथा खंभा भी बताया गया है । लेकिन तब क्या जब सरकार सूनने के मूड में ही नहीं हो? इसके लिए सरकार दो तरह के हथकंडे अपनाती है। एक ये के  मीडिया के ऊपर पाबंदी लगा दी जाए और कोई कुछ बोले तो उसके ऊपर FIR दर्ज कर दी जाए , जो के उस वक़्त किया गया और दूसरा ये के सारे मेन स्ट्रीम न्यूज चैनल को अपनी तरफ कर लिया जाए और जो अपनी तरफ ना आए उसे डरा दिया जाए । न्यूज़ चैनल सरकार का गुणगान करेंगी  और असल खबर और जनता की परेशानी से कोसो दूर रहेंगी । ना जनता की बात सरकार तक पहुंचेगी ना ज़िम्मेदारी होगी सरकार की । जो के इस वक़्त किया जा रहा है। फिर चाहे घास खाने पर मजबूर बच्चों को दिखाने वाला पत्रकार ही क्यूं ना हो उसके ऊपर भी एफआईआर करने से सत्ताधारी पीछे नहीं हटते।


अब सवाल ये के इन हालात में क्या कोई  जगमोहन सिंहा जैसा कोई जस्टिस आएगा जो ये फिक्र भी ना करे के उसके साथ कुछ बुरा हो सकता है और लोकतंत्र को बचाने के लिए जनता के हक में फैसला दे?


क्या कोई जेपी की तरह नेता खड़ा होगा जो सम्पूर्ण व्यवस्था को बदल देने की बात करे और सम्पूर्ण क्रांति जैसे अल्फ़ाज़ का मतलब लोगों तक पहुंचाए ? 


और आख़िर में ये सवाल के वो दिन कब आएगा जब मौजूदा हालत की इंदिरा किसी राजनारायण से हार जाए , फिर चाहे 55 हजार नहीं तो 55 वोट ही सही ???????


✍️Er Aurangzeb Azam

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