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Showing posts from June, 2020

मैं और मेरा नाम

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अंग्रेजी के एक महान लेखक शेक्सपियर ने कभी कहा था कि, "नाम में क्या रखा है?" मैं भी यही समझता था कि, नाम में क्या रखा है? आपकी पहचान आपके काम से होती है,और नाम के तरफ कभी ध्यान दिया ही नहीं। हालांकि मुझे अपने नाम की वजह से कई सारे ह़ालात पेश आए।  जो लोग इस नाम को पसंद करते थे, इस नाम के पीछे छुपी हुई असलियत को जानते थे, उन्होंने तो शाबाशी दी, और उम्मीद भरी निगाह से देखा, जैसे कि कोई ऐसा काम अधूरा हो, जिस को पूरा करने की तरफ इशारा कर रहे हों। कोई राज़ हो जिसे दुनिया के सामने उजागर करने के लिए उकसा रहे हों, और जो इस नाम को पसंद नहीं करते, वो मेरे नाम को सुनते ही बस यह कह देते अरे वो तो बड़ा ज़ालिम था, और उसने अपने खानदान वालों के साथ ये-ये ज़ुल्म किया था, बग़ैर तह़क़िक किए हुए के वो ज़ुल्म था या इंसाफ़? और फिर बहुत सारे क़िस्से इस अंदाज़ में सुनाने लगते मानो कि वो सारे काम मैंने खुद ही किया हो।  कभी नाम की स्पेलिंग की गड़बड़ी तो कभी बोलने में तलफ़्फ़ुज़ यानि उच्चारण में गड़बड़ी सुनते सुनते तो अब आदत सी हो गई है। बहरहाल ये तो एक छोटा मसला था लेकिन क्या हो जब आपके नाम की वजह से आप

मेरे बचपन का दोस्त।

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अज़हर उर्फ डब्ल्यू  मेरा कजन भाई कम दोस्त ज्यादा। बचपन से हम लोग साथ रहे खेले-कूदे, पढ़ा-लिखा और जिंदगी का हर लम्हा आपस में साझा किया। लुका छुपी हो  या  गिल्ली डंडा  या फिर क्रिकेट  हमने साथ में  सब के मज़े लिए, एक दूसरे की जिंदगी को समझने की कोशिश की  और साथ ही  जवानी की दहलीज पर कदम भी रखा।  उन दिनों  की यादें सबकी अतरंगी होती हैं जब बचपने को छोड़कर कोई लड़का / लड़की जवानी के साँचे में ढल रहा होता/होती है। है न?       इसकी भी कुछ ऐसी ही दास्तां रही कुछ अजीब किस्से, कुछ अतरंगी कहानियां, कुछ शरारती हरकतें, जैसे क्लास की खूबसूरत लड़की को खत लिखना और उसे बिना कहे उसके बैग में डाल देना। घरवालों से छुपकर मोबाइल रखना और नई बनी हुई गर्लफ्रेंड से बात करना। यह सब इसके साथ हो रहा था और इसकी खबर किसी को ना हो यह मेरी जिम्मेदारी थी हद तो तब हो जाती थी जब इसकी लड़ाई गर्लफ्रेंड से हो जाती थी, उस वक्त  इसका फोन  उठाना  और  इसकी गर्लफ्रेंड से बात करना  यह सब जिम्मेदारी भी मेरी ही होती थी  और मुसीबत ये थी के उस वक्त मुझे पता नहीं था के बात क्या करनी है?  कई बार  हम  किसी मुद्दे पर  एक हो जाते थे  और क

बारिश, बचपन और ज़िम्मेदारी।

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बचपन का हसीन ज़माना जब हमारे घर की दिवार कच्ची, मिट्टी की थी , फर्श भी मिट्टी का जिसमें कई बार चूहे अपनी बिल बना लिया करते थे और उसे मिट्टी का लेप लगा कर उसे भर दिया जाता था।  पिलर के नाम पर एक मोटी मजबूत ग़ालिबन नीम के पेड़ की टहनी दीवारों के सहारे छत को रोके हुए थी। छत मिटटी से बने और चिमनी की भट्ठी में पके खपरे से बना था जो के बांस के बल्लियों के ऊपर तह ब तह रखे हुए थे जिनसे बारीश के दिनों में पानि रिस कर अंदर टीप-टीप टपकता था , जिस की वजह से कई सुबह और शाम एक जगह बैठ कर गुज़ारनी पड़ती थी क्योंकि घर में कई जगह पानी लगने की वजह से कीचड हो जाया करता । दिन तो फिर भी गुज़र जाते मगर रात गुज़ारना मुहाल हो जाता । घर के एक कोने पर जहाँ कम पानी टपकता था एक पलंग लगा था जो के 1993-94 का बना था और अब अपनी पूरी सलाहियत खो चुका था । हम अक्सर उस पलंग पे बारिश की रातें बैठे बैठे सो के गुज़ार दिया करते थे । इन सबके बावजूद बचपन की बारीश सबसे प्यारी थी क्यूंकि उस वक़्त उस बारीश में सिर्फ भिंगना नहीं था बल्की अपने लडकपन की शहादत देते हुए अपने यारों के साथ बारीश के मज़े लेने थे । बारिश में कबड्डी खेलना था । काग़ज़